सभी देवताओं में भगवान गणपति सर्वप्रथम पूजनीय हैं। कोई भी पूजा हो या शुभ कार्य सर्वप्रथम उनका ही पूजन होता है। वे ऋद्धि सिद्धि दो शक्तियाँ जो उनकी पत्नी हैं उनके साथ विराजमान हैं। उनके दो पुत्र शुभ और लाभ हैं।
गणेश जी को सपरिवार नमन करते हुए उनसे सभी भक्त आशीष और कृपा की कामना करते हैं। मोदक और लडडू उनके प्रिय भोग हैं। वे कृपालू गणपति सदैव सबका कल्याण करते हैं।
गणेश जी को एक दन्त क्यों कहते हैं, इस विषय में एक कथा है।गणेश जी के दो सुन्दर दाँत थे।पर विधी के विधान के कारण उनका एक दाँत टूट गया।भगवान परशुराम भगवान शिव के परम शिष्य हैं।और माता पार्वती जी भी उन्हें बहुत स्नेह देती थी। वे कभी भी भगवान शिव से मिलने आ सकते थे।एक बार परशुराम जी भगवान शिव से मिलने आते हैं।वे अपने ही ध्यान में चले जा रहे थे।वे जैसे ही शिवजी के कक्ष पर पहुँचे तो द्वार पर गणेश जी खड़े थे।वे उन्हें भीतर जाने से रोक देते हैं।
परशूरामजी क्रोधित होकर गणेश जी से कहते हैं कि, हे हाथी मुख वाले मुझे क्यों रोका?तुम जानते नहीं मैं कौन हूँ?मैं भगवान शिव का शिष्य परशूराम हूँ।
गणेश जी ने कहा अगर तुम्हें भीतर जाना है तो पहले मुझसे युद्ध करना होगा।ऐसा कहते ही परशुराम और गणेश जी में युद्ध होने लगा।परशूराम जी ने जोर से अपना फरसा चलाया। जिससे गणेश जी का एक दाहीना दाँत टूट गया।वे जोर से चीख पड़े।चीख सुनकर माता पार्वती काली बनकर रौद्र रूप में आईं।परशुराम डर कर भगवान शिव की शरण में चले गए।
यह सुनकर ब्रह्या,विष्णू जी दौड़े दौड़े आऐ।ब्रह्या जी ने कहा यह परशूराम की भूल नहीं है।यह तो विधी का विधान है।यह तो इनका एकदन्त होना निश्चित था।क्योंकि एकदन्त होकर ही वे राक्षस मदासुर का वध करना था।
भगवान शिव ने एकदन्त भगवान गणपति को आर्शीवाद् दिया।
इसी एक दाँत से भगवान गणपति ने श्री वेदव्यास जी के साथ बैठकर लगातार महाभारत काव्य की रचना की थी।क्योंकि इसके लिए एक ऐसी कलम की आवश्यक्ता थी जो लगातार चले और टूटे घिसे नहीं।इसलिए उन्होंने कलम के स्थान पर अपने दाँत का प्रयोग किया था।
इस ग्रंथ को लिखने में अठ्ठारह दिन लगे ,जो उन्होंने लगातार बैठ कर लिक्खा था।