पुस्तकों में दिया ज्ञान जड़ है क्योंकि वहाँ व्यक्ति अपनी बुद्धि अनुभव और जानकारी के आधार पर उसका अर्थ लगाता है। इससे कई बार अर्थ का अर्नथ होने की संभावना रहती है क्योंकि किसी गूढ़ विषय को मात्र पढ़ कर नहीं समझा जा सकता है। उसके लिए भीतर ज्ञान ,विवेक,और अनुभव के साथ अनुभूति की भी गहराई चाहिए।जो बिना गुरु के संभव ही नहीं है।
गुरु द्वारा दिया ज्ञान चेतना से युक्त होता है:
चेतना अर्थात उस ज्ञान में गुरू के तप का,प्राण शक्ति का तेज और बल संयुक्त होता है। जिससे वह गुरु वचनों द्वारा सीधे व्यक्ति के प्राणों में उतर जाता है। व्यक्ति,शिष्य के प्राणों से सीधा वह मन,वचन और कर्म पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है।
गुरु मुख से प्राप्त मंत्र साधना कीलित नहीं होते। अतेएव पूर्ण श्रद्वा विश्वास से इन्हें किया जा सकता है और अपने मनोरथ पूर्ण किए जा सकते हैं। गुरु द्वारा निर्देशित साहित्य और पत्रिका से ही साधना मंत्र प्राप्त करने चाहिए।
क्योंकि ये कीलन से मुक्त होते हैं। गुरु द्वारा स्वंय परिक्षित होते हैं। गुरु काल और आज की परिस्थिति के साथ उसे संशोधित और सहज सरल करके ही वह मंत्र और साधना देते हैं।
जिससे सभी जन साधारण इन मंत्रों और साधनाओं का लाभ ले सकें। अगर व्यक्ति से किसी कारण विशेष से साधना छूट जाय तो कोई हानी नहीं होती। पुनः आरंम्भ कर सकते हैं। पुस्तकें बोल नहीं सकतीं।सही या गलती व्यक्ति की बता नहीं सकतीं। पर गुरु निष्पक्ष सही गलत जो भी है कह देते हैं। व्यक्ति गुरु से निर्देशन ले सकता है। उसके अनुकूल क्या है यह तो गुरू ही बता सकते हैं। पुस्तकें नहीं।
पुस्तकों का मूल्य महत्व कहीं भी कम नहीं है क्योंकि ये वे अमुत्य धरोहर हैं जो मानव को जीवन के,प्रकृति और ब्रहमांण्ड के ज्ञान को स्वंय में समेटे हुए हैं। जो मानव को पग पग पर मार्ग बताती हैं कि हमारे पूर्वजों ने या आज मानव ने अपने ज्ञान में,जानकारी और खोज में कितनी ऊँचाईयों को छुआ है।
पर जब आध्यात्म का पक्ष आता है तब गुरु की शरण आवश्यक है क्योंकि झ्स अथाह जगत की गली गली से,पग पग से गुरु अच्छी तरह परिचित हैं।