श्रावण मास,जब सारी पृथ्वी जीवन रस से परिपूर्ण होती है। रस जहाँ है वहाँ शिव हैं। अनगिनित आयामों को समेटे हुए भगवान शिव अपने भक्तों को,सम्पूर्ण सृष्टि को अपने आर्शीवाद और चेतना से भर देना चाहते हैं। कौन हैं शिव,क्या हैं शिव इस पर कुछ भी कहना व्यर्थ होगा। क्योंकि वे शब्दों से परे हैं। जिनके डमरू से ध्वनि ,अक्षर अवतरित हुए उनको शब्दों में वर्णन करना व्यर्थ है क्योंकि एक चीटीं हिमालय को नहीं नाप सकती और एक चिड़िया पूरे समुद्र को अपनी चोंच में नहीं भर सकती।
उसी तरह भगवान शिव के अनगिनित आयामों को एक सामान्य मानव नहीं माप सकता और एक सूक्ष्म बुद्धि उनका वर्णन नहीं कर सकती। जहाँ शिव हैं वहाँ मौन है। शून्य है। मानव एक बूँद है जिसे शिव रूपी समुद्र में विलीन होना है। शिव से उत्पन्न होकर शिव में ही विलीन होना है।
शिवलिंग क्या है?
शिवलिंग ब्रहमांण्ड के अनेकों आयामो और सृष्टि के प्रकट होने का प्रतीक है। जब शिव और शक्ति संयुक्त होते हैं तो सृष्टि उत्पन्न होती है और विलय भी इन्हीं में होता है। शिव शरीर हैं और शक्ति शिव में ही समाहित होती हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। मात्र शिव की आराधना सफल नहीं हो सकती।शक्ति की भी आराधना करके ही शिव पूजन पूर्ण होता है।
शिव ज्ञान हैं। सर्वप्रथम गुरु है और वे मानव मात्र के कल्याण के लिए सद्गुरू रुप में अवतरित होते हैं। इसी लिए सर्वप्रथम पहले गुरु पूर्णिमा अर्थात गुरु रूप में उनका पूजन होता है। शिव किसी एक परिभाषा से नहीं बंधे। शिव का कोई निशचित पूजन विधि भी नहीं है। वे जितने अनंत हैं उतने सहज और सरल भी हैं। उनका कोई अज्ञान वश भी पूजन करे तब भी वे प्रसन्न हो जाते हैं।
हर आयू ,वर्ग,जाती के वे प्रिय हैं। मानव,देव,राक्षस,पशु,पक्षी और भूत प्रेत अशरीरी भी उनको अपना परम प्रिय ईष्ट मान उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते हैं और वे भी सहज सरल भाव से सबको अपना लेते हैं। कभी भेदभाव नहीं करते और यही सदगुरू भी करते हैं।यही उनका स्वभाव है।
श्रावण मास ही क्यों? शिवरात्री ही क्यों?
जीवन का एक एक क्षण शिवमय होना चाहिए। हर क्षण निरन्तर उनका अभिषेक होना चाहिए। पर कैसे? यह कैसे संभव है? यह क्रिया ही गुरू शिष्य को सिखाते हैं। यह मात्र शब्दों या किसी विद्यी को पढ़कर नहीं किया जा सकता। यह क्रिया तो मात्र सदगुरु ही कर सकते हैं। यही तो गुरु का उद्देश्य है। शिष्य के जीवन में,उसके भीतर शिव हों शक्ति हों और जीवन रसयुक्त हो। फिर चाहे बैल और सिंह रूपी दो विपरीत प्रकृति मानव जीवन में संतुलन बना सकते हैं।
फिर मोर और सर्प रूपी जीवन की अनूकूल प्रतिकूल परिस्थिति भी वश में रहती है। यही प्रतीक है शिव परिवार का। जहाँ ज्ञान है,तप है,चेतना है और सर्वोपरि शिव रूपी सदगुरु हैं वहीं जीवन है। वहीं रस है। समस्त मानव जाति जो अंधकार में विलीन हो रही है वहाँ शिव रूपी सदगुरूदेव की चेतना हो,ज्ञान हो,रस हो। यही सदगुरुदेव रूपी भगवान शिव से बारंम्बार प्रार्थना है।