आध्यात्म जगत सूक्ष्म जगत है।और इसमें जो भी क्रिया होती है उसमें भाव,विचार,ध्वनि,की सूक्ष्म और विस्तृत सत्ता होती है।और आज़ इसे विज्ञानं भी स्वीकार करता है।हमारे मंदिरों में देव प्रतिमाओं की पहले प्राण प्रतिष्ठा की जाती है।प्राण प्रतिष्ठा की वह क्रिया वह विधी होती है जिसमें ,मंत्रों की सुनियोजित क्रम विधी द्वारा देव प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। जिसे प्राचीन काल से किया जाता रहा है।
मंत्र अर्थात ध्वनि,और उसमें बोली जाने वाली प्रार्थनाएँ वह सिद्ध भाव हैं जिनके द्वारा देवता का आवाहन किया जाता है।और मूर्ति में उसे प्राण प्रतिष्ठित किया जाता है।उस देवता की प्राण उर्जा उसमें स्थापित हो जाती है।
आज भी यह क्रिया संपन्न करके परिक्षा की जाती है।इसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करके उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है।
इसके बाद उसके सामने शीशा रक्खा जाता है।मूर्ति की आँखों पर से पट्टी हटाते ही वह शीशा स्वंय ही टुकड़े टुकड़े होकर बिखर जाता है।यह प्रमाण है कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी है।क्रिया करना,खाना पीना देहिक आचरण है।और देव शक्ति देह नहीं है। वह उर्जा,प्राण शक्ति के रूप में अनादि काल से सर्वत्र विद्यमान है।
देव प्रतिमा मंदिर में स्थापित की जाती है।और उस प्रतिमा में उस देव का प्रत्यक्ष अनुभव भक्तों को अवश्य होता है।मंदिर में रक्खी देव प्रतिमा साक्षात देव की अनुभूति देती है।और हमारा मन अथाह शान्ति,श्रद्वा और भाव से नतमस्तक होने लगता है।एक दिव्य उर्जा और आनंन्द की अनुभूति होती है।
और वह अनुभूति देर तक बनी रहती है।हमारे मंदिरों में मूर्ति मात्र मूर्ति नहीं सक्षात देव ही होते हैं।पुजारी पूर्ण श्रद्धा भक्ति भाव से उनकी सेवा पूजा अर्चना करते हैं।हमारे भारतवर्ष में कई मंदिरों में ऐसी मूर्तियाँ स्थापित हैं जो आज भी अपने भीतर अनेकों आश्चार्य और रहस्यों को समेटे हुए हैं।जैसे तिरूपति बाला जी।
उनकी प्रतिमा के केश असली हैं।
वे सदैव कोमल रहते हैं।कभी उलझते नहीं हैं।और उनकी प्रतिमा से पसीना भी आता है।ऐसी मान्यता है कि बाला जी यहाँ साक्षात विराजमान हैं।निधीवन श्री कृष्ण राधा जी का मंदिर है।यहाँ मंदिर में रात को श्रृंगार,नवैध,लोटे में जल,पान रक्खा जाता है।जो सुबह बिखरा हुआ मिलता है।नवैद्य खाया हुआ,दातुन चबी हुई और श्रृंगार फैला हुआ होता है।जैसे इसे प्रयोग किया गया हो।
ऐसी मान्यता है कि भगवान यहाँ रास करते हैं।और नित्य राधाजी श्रृंगार करती हैं।वे जल ,नवैध, पान ग्रहण करते हैं।वहाँ मीडिया पैहरे पर बैठी पर कभी किसी को कुछ पता नहीं चला।यहाँ तक की अपने सामने देख परख कर ताले लगाए।अपने सामने ही ताले खुलवाए पर नित्य की भाँति वही दृश्य था।सभी सामग्री बिखरी हुई और प्रयोग की गई थी।
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जगन्नाथ पुरी में।भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति ,जो स्वंय में कई रहस्य समेटे हुए हैं।जिसमें कहा जाता है कि उसमें कोई दिव्य पदार्थ है जो भगवान का हदय है।और इस मंदिर में अनेकों ऐसे अदभुद रहस्य हैं जो प्रभू सत्ता का प्रत्यक्ष दर्शन देती हैं।हमारा देश ऐसी दिव्य देव स्थलों और उनके प्रत्यक्ष अनुभवों से भरा हुआ है।
मूर्ति में प्राण स्थापना भाव भक्ति से भी होती है।भक्त श्रद्धा वश भगवान के चित्र,प्रतिमा लाते हैं।उनसे अपने भाव जोड़ते हैं।प्रेम से सेवा अर्चना करते हैं तो कुछ ही समय में भक्त को उस चित्र और प्रतिमा में प्राण अनुभव होने लगते हैं।हमारे देश में कृष्ण भक्त श्री लडडू गोपाल जी की सेवा करते हैं।और अपने भाव से ईष्ट की प्रत्यक्ष अनुभूति और कृपा अनुभव करते हैं।
एक बालक की तरह अपनी सन्तान मान कर सेवा भाव रखते हैं। भक्त उनमें प्राण अनुभव करते हैं।उन्हें प्रतिमा का नहीं एक प्रत्यक्ष बालक का अनुभव हाेता है।जिसमे ईश्वर के प्रति भाव भक्ति,आस्था है उसके लिए ईश्वर प्रत्यक्ष हैं।मूर्ति या चित्र नहीं है।और जो भाव शून्य हैं,बुद्धि की अति उन्हें उस परम सत्ता का अनुभव नहीं होने देती।उनके लिए हजारों तर्क हैं।