हम दान क्यों दें?हमारे परिश्रम का धन हम मंदिरों,गुरु आश्रम,गुरु कार्य में क्यों दें?भगवान को धन की क्या जरूरत ?वे तो मोह माया से उपर उठे हुए हैं ना?और व्यक्ति की दान के प्रति भावना इतनी दयनिय और कुत्सित है। दान क्या है?यह प्रथा क्यों है?हम इस प्रथा का पालन क्यों करें?इस पर अनेकों प्रश्न हैं।और धारणाऐं हैं।दान पर शास्त्रों में अनेकों शलोक हैं।अनेक कथन हैं।पर आज के युग में इसकी जरूरत क्यों है?यह तो सभी जानते हैं कि हम सनातन धर्म,आध्यात्म को मानने वाले हैं।और उसी पथ पर चलने वाले हैं।सनातन धर्म लोक हित पर आधारित है।यह आत्मा ,देह के साथ साथ परिवार समाज के हित को भी ध्यान रखता है।
दान का अर्थ क्या है?दा अर्थात देना,न अर्थात निस्वार्थ भाव से।अर्थात निस्वार्थ भाव से देना।यह देना ही सामाजिक व्यवस्था का आधार है।यह दान ही है जिसके आधार पर यह सामाजिक व्यवस्था टिकी हुई है।
हमारे पूर्वज जो धरोहर छोड़ कर गए वह आज हमारे काम आ रही है।
जैसे मंदिर,अस्पताल,स्कूल,कॉलेज,अनाथआश्रम,वृद्धाआश्रम जैसी अनेकों संस्थाऐं हैं।जो समाज कल्याण के लिए बनाई गई हैं।यह क्यों बनाई गईं?हमारे देवता व ऋषि मुनि जानते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।समाज में अमीर गरीब सभी तरह के लोग हैं।जो अमीर हैं वे धन के बल पर अपने लिए सुख सुविधा जुटा सकते हैं।पर जो गरीब हैं उनकी सुविधाओं का क्या?
ब्राहमण ,गुरु अगर अपनी जीविका के लिए कमाने जाऐंगे तो वे अध्यन कब करेंगे?वे समाज को अच्छी शिक्षा,ज्ञान दे पाऐंगे?और उनके ज्ञान में फिर स्व हित ही ज्यादा होगा।वे फिर निस्वार्थ ज्ञान दे पाऐंगे?
मंदिर,आश्रम,विद्यालय,पुस्तकालय व हमारे ग्रंथों का संयोजन,अध्यन के लिए गुरूकुल,अनाथ आश्रम,वृद्धाश्रम,रोगियों के लिए आश्रम,भूखों को भोजन, अनाथ जानवरों के लिए भोजन और उनका पालन पोषण,उनको नियमित चलाए रखने के लिए दान की व्यवस्था ही काम आती है।और ना जाने कितने कार्य जो प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दान पर ही चलते हैं।अगर समाज में दान की प्रथा समाप्त हो जाए तो इसका असर पूरे समाज पर पड़ेगा।
अनेकों अनाथ हो जाऐंगे।धर्म के कार्य रूक जाऐंगे।फिर हमारी आने वाली पीढ़ी को ज्ञान कौन देगा?
आने वाली पीढ़ी का क्या अन्जाम होगा बताने की जरूरत नहीं।इसलिए देवताओं ने इस व्यवस्था को धर्म से जोड़ा।और कहा कि जो भी व्यक्ति अपनी क्षमता अनुसार दान देगा वह पुण्यों का भागीदार होगा।
यह परम सत्य है।और इसमें उनका निस्वार्थ भाव है।पर वे अच्छी तरह जानते हैं कि मनुष्य की प्रवृति बिना फायदे के देने की नहीं हैै।
इसलिए उन्होंने कहा कि जो दान देगा वह पुण्यों का भागीदार होगा।और झ्न पुण्यों का बहुत महत्व है।यही पुण्य हमारे कर्म से जुड़ कर सुख सौभाग्य की प्राप्ति कराते हैं।हमारे जप तप को पूर्णता दिलवाते हैं।हमारे इस जन्म को ही नहीं आगे आने वाले जन्मों को भी सफल बनाते हैं।इन पुण्यों का प्रभाव हमारे जीवन,घर परिवार और सन्तान पर पड़ता हैै!यह पुण्य ही है जो अच्छे विचार,संस्कारों की प्राप्ति कराते हैं।क्योंकि इसका प्रभाव हमारे मन और विचारों पर पूर्ण रूप से पड़ता है।अगर ये अच्छे हैं तो मानव अपने जीवन का निर्माण सुखद ढंग से कर लेता है।
यह पुण्य ही है जो कार्य को निर्विध्न सुचारू रूप से करने में सहायक होता है।यह पुण्य ही है कि व्यक्ति रोग,शोक,दारिद्रय से दूर २हता है।यह पुण्य ही है कि अच्छे मित्रों और सहयोगियों की प्राप्ति होती है।
यह पुण्य ही है जो समाज में मान प्रतिष्ठा और ख्याति मिलती है।
पुण्यों के प्रताप के आगे इन्द्र भी आसन से खड़े हो जाते हैं व उस पुण्य आत्मा के पुण्य प्रभाव में जो पापी भी आते हैं उनके पापों का नाश हो जाता है।इन पुण्यों का इतना महत्व हैै कि इसको पाने के लिए राजा,धनी,आम या खास सभी अपना सर्वस्व लुटा देते हैं।क्योंकि ऐसा करने वाला जानता है कि यह पुण्य ही हमारे साथ जाऐगा।
क्योंकि भारत शुरू से ही ज्ञान और आध्यात्म में समृद्ध रहा है।और गुरुजन,शास्त्र दान का,पुण्य और पुण्य कर्म का महत्व सदा बताते रहे हैं।
पुण्य आत्मा राजा जनक,जब यम के पास जाते हैं तो उनके कर्मो का लेखा जोखा होता है।और उन्हें कहा जाता है कि आपके पुण्य कर्म अनंन्त हैं।आपको अनंन्त तक स्वर्ग की प्राप्ति होगी।पर आपको घड़ी भर को नर्क भी जाना होगा क्योंकि कुछ पाप कर्म का भुगतान भी करना होगा।राजा जनक नर्क चले गए।देखा कि वहाँ नर्क में अनेकों आत्माएँ त्राही त्राही कर रही हैं।
वे व्यथित हो गए और संकल्प लिया मैं अपने समस्त पुण्य इन आत्माओं के कल्याण के लिए दान करता हूँ।
और पुण्य दान के प्रभाव से सारी आत्माऐं मुक्त हो कर जाने लगीं।उन्होंने राजा जनक को आशीष दिए व उनके लिए मंगल कामना की।और राजा जनक के लिए ईश्वर प्रकट हो गए।उन्होंने राजा जनक से कहा तुमने निस्वार्थ भाव से अपने समस्त पुण्यों को दान दिया है।और वे पुण्य अनंन्त गुणा होकर तुम्हें वापिस मिल गए हैं।उसके प्रभाव से मैं तुम्हें अपने लोक स्वंय लेने आया हूँ।भगवानउन्हें अपने धाम को ले कर चले गए।
दान की महिमा अनंत है।दान मात्र धन से नहीं होता।दान भी कई तरह के होते हैं।धन दान- अपनी आय का एक अंश गुरु,देव या सामाजिक कार्य,या लोक हित में देना धन दान है।श्रम दान।- गुरू या देवताओं की सेवा में या उनके किसी निर्माण कार्य,उत्सव,शिविर में जो श्रम निस्वार्थ भाव,सेवा भाव से किया जाता है वह श्रम दान है।
समय दान–नित्य गुरु ,समाज,ईष्ट की सेवा में नित्य कुछ समय निस्वार्थ भाव से दिया जाए तो वह समय दान है।
बुद्धि दान –अपनी बुद्धि बल से,व योग्य सलाह और क्रिया, निस्वार्थ बुद्धि का उपयोग गुरु ईष्ट और समाज के कार्य साधने के लिए किया जाए वह बुद्धि दान है।भाव दान–गुरू,ईष्ट के लिए,व समाज को इनके प्रति शुभ प्रेणना व भाव देना व लेखन,प्रचार प्रसार की सामग्री वितरित करना ही भाव दान है।
आज भी दान सामाजिक रूप से,धार्मिक रूप से उतना ही महत्वपूर्ण है जन मानस में।हमारे धार्मिक स्थल हों या सामाजिक कार्य सभी सुचारू रूप से दान द्वारा चल रहे हैं।यह भारत ही नहीं विश्व में सर्वव्यापी है।आज के प्रत्यक्ष उदाहरण जो राजा जनक की तरह पुण्य आत्मा हैं वे हैं,कैलाश सत्यार्थी जो अपना तन मन धन यहाँ तक की प्राणों की बाजी लगाने से नहीं चूके बच्चों के हित के लिए।जिन्हें नोबल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया।
और सबसे बड़े दाता हमारे गुरु जन,संत मुनी हैं।वे हमारे आध्यात्म के लिए,समाज कत्याण,लोक डित के लिए निस्वार्थ। भाव से अपना पूरा जीवन अर्पण कर देते हैं।लोक हित के लिए अपना जीवन तन मन धन सभी कुछ उन्होंने अर्पण कर दिया।वह भी निस्वार्थ निष्काम भाव से।अभी हाल ही में एक संत ने दस लाख रूपये दान दिए।यह एक रील में दिखाया गया था।
मंदिरों द्वारा भी अनेकों संस्थाओं का निर्माण व उनका पालन पोषण होता है।करोना काल में इन्हीं के द्वारा बढ़ चढ़ कर सहयोग राशी प्रदान की गई।जरूरत मंद,असहाय,गरीब की मदद करना भी हमारा सामाजिक कर्तव्य है।प्रत्येक क्षमता वान को इसे समझना चाहिए।